यह तंत्र इस प्रकार काम करता था:
- दरवाजे खोलने के लिए:
- पुरोहित पूजा के लिए मंदिर के बाहर बनी वेदी पर आग जलाते थे।
- वेदी के नीचे, एक गुप्त कक्ष में एक धातु का पात्र (टैंक) रखा होता था। आग की गर्मी से इस पात्र की हवा फैलती थी।
- फैलती हुई गर्म हवा दबाव बनाती थी, जिससे वह पात्र में भरे पानी को बाहर धकेलती थी।
- पानी एक नली से होते हुए एक बाल्टी में भर जाता था, जो एक रस्सी और घिरनी (पुली) के माध्यम से दरवाजों से जुड़ी होती थी।
- जब बाल्टी में पानी भरता था, तो उसका वजन बढ़ जाता था, जिससे वह नीचे की ओर झुकती थी और रस्सी खींचती थी।
- इस खिंचाव के कारण दरवाजे घूमते थे और अपने आप खुल जाते थे।
- दरवाजे बंद करने के लिए:
- जब वेदी की आग बुझ जाती थी, तो गुप्त कक्ष के पात्र की हवा ठंडी होकर सिकुड़ती थी।
- इससे पात्र के अंदर एक निर्वात (वैक्यूम) बनता था, जो बाल्टी से पानी को वापस पात्र में खींच लेता था।
- बाल्टी का वजन हल्का होने पर एक प्रतिभार (काउंटरवेट) की मदद से बाल्टी ऊपर की ओर उठ जाती थी।
- इस प्रक्रिया के दौरान, रस्सी और घिरनी का तंत्र उलट जाता था और दरवाजे फिर से बंद हो जाते थे।
उस समय के लोगों के लिए, इन भारी दरवाजों का अपने आप खुलना और बंद होना एक जादुई या दैवीय हस्तक्षेप जैसा लगता था। यह हेरोन की इंजीनियरिंग प्रतिभा का एक शानदार उदाहरण था।